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26 September 2018

कमाल का कमाल


कबीर का बेटा कमाल:


जिस दिन कबीर ने कमाल को कमाल नाम दिया था, उसी दिन स्वीकार कर लिया था कि है कुछ कमाल इस लड़के में! कुछ बात हो कर रहेगी। मगर कमाल इतना था, कि कबीर को भी आत्मसात कर लेना मुश्किल था। यूं तो वे बड़े हिम्मत के आदमी थे। बड़े फक्कड़ आदमी थे। कहां उनके मुकाबले का फक्कड़ हुआ भारत में!
कबीर कहते हैं:
कबिरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ।
घर जो बारै अपना चले हमारे साथ।।
लट्ठ लिए बाजार में खड़ा हूं। है कोई माई का लाल! चलता है मेरे साथ! तो लगा दे अपने घर में आग। ऐसे हिम्मत का आदमी! मगर कमाल, आखिर कबीर का ही बेटा था। वह और दो कदम आगे चला गया। जैसे मैं तुमसे कह रहा हूं कि शंकराचार्य से मैं दो कदम आगे! जाना भी चाहिए। शंकराचार्य को बीते हजार साल हो गए। अगर हजार साल में दो कदम भी न चले, तो हद्द हो गई। तो फिर जिंदा क्या हो! मर ही गए! मर ही जाते तो अच्छा था।
कबीर कहते थे, कमाल वही करता था। मगर कई बातें महात्मा कहते हैं--करने की नहीं होती। जैसे कबीर कहते थे--सोना मिट्टी है। यह तो बड़ी प्रचलित बात थी कि सोना मिट्टी है। कबीर कहते थे, बचो कामिनी-कांचन से।
कमाल को यह बात न जंचती, कि जब सोना मिट्टी है, तो बचना क्या? जब मिट्टी है, तो बचना क्या? या कहो कि मिट्टी नहीं है--तो फिर बचने की बात उठती है!
काशी नरेश को पता चला कि कमाल कुछ उल्टी-सीधी बातें कहता है। अपने बाप के खिलाफ कह देता है। देखें!
परीक्षा करने के लिए वह लाया एक बहुत बड़ा हीरा--जो उसके पास सबसे कीमती हीरा था। और उसने कमाल को भेंट किया। उसने सुना था कि कमाल भेंट ले लेता है। कबीर तो भेंट लेते नहीं थे। कबीर को कुछ लाए कोई, तो वे कहें कि नहीं भाई, मैं परिग्रह नहीं करता। अरे, इस मिट्टी को मेरे सामने से ले जाओ। मुझे नहीं चाहिए सोना। सोना मिट्टी है। मैं क्या करूंगा हीरा। हीरा तो कंकड़-पत्थर है।
कमाल बगल के ही झोपड़े में रहता था। कबीर उसको अपने झोपड़े में नहीं रहने देते थे। क्योंकि कबीर जिसको लौटा देते...कोई सोना लाता, कोई हीरा लाता, कोई चांदी लाता...। जिसको कबीर लौटा देते, कमाल बाहर ही बैठा रहता, वह कहता, रख दे रे! यहीं रख दे। अरे, जब मिट्टी है--कहां ले जा रहा है! छोड़ जा।
कबीर को बहुत दुख होता है कि मैं तो किसी तरह उसको भगाया और इसने रखवा लिया! लोग क्या सोचेंगे कि यह तो तरकीब दिखती है। बाप बेटे की सांठ-गांठ दिखती है! इधर बाप कहता है कि सब मिट्टी है, ले जा। और बेटा कहता है कि रख जाओ। कहां ढोते फिरते हो?
तो उसको कहा कि तू भैया, बगल के झोपड़े में रह। यह तेरा ज्ञान तू अलग चला! तो कमाल अलग रहने लगा।
काशी नरेश ने आकर हीरा भेंट किया। कमाल ने कहा, क्या लाए! लाए भी तो कंकड़-पत्थर! न खा सकते, न पी सकते। अरे, कुछ फल लाते, कुछ मिठाई लाते! बात पते की कही कि क्या करूंगा इसका!
नरेश ने सोचा कि अरे, लोग तो कहते थे कि वह रखवा लेता है! और यह तो बिलकुल और ही बात कर रहा है! तो उसने कहा कि मेरी आंख खुल गई। मैं तो कुछ और ही आपके संबंध में सुना था।
उठ कर चलने लगा हीरे को लेकर। उसने कहा, रुको, अब ले ही आए, तो अब मिट्टी कहां वापस ले जाते हो? समझे नहीं कि मिट्टी है! छोड़!
तब नरेश समझा कि यह आदमी तो बड़ा हद्द का है! पहले तो ऐसा जंचा कि बिलकुल महात्मा जैसी बात कर रहा है। अब तरकीब की बात कर रहा है कि छोड़!
मगर वह भी परीक्षा ही लेने आया था। उसने कहा, कहां रख दूं?
कमाल हंसने लगा कि फिर ले जा। क्योंकि जब तू पूछता है कि कहां रख दूं, तो तू समझा नहीं। तो अभी भी तुझे हीरा ही मालूम हो रहा है। तो पूछता है: कहां रख दूं। अरे, पत्थर को कोई पूछता है कहां रख दूं। कहीं भी रख दे रे! जहां तेरी मर्जी, वहां रख दे।
नरेश तो बड़ी बिबूचना में पड़ा कि यह बात क्या है! उसने वहीं झोपड़े के छप्पर में, सनौलियों का छप्पर था, वहीं हीरे को खोंस दिया। बाहर निकला सोचता हुआ कि इधर मैं बाहर गया, और इसने हीरा निकाला!
कोई पंद्रह दिन बाद आया कि देखें, क्या हाल है! मस्त, कमाल बैठा था। बज रहा था इकतारा। थोड़ी देर इधर-उधर की बात की। फिर नरेश ने पूछा कि हीरे का क्या हुआ?
कमाल ने कहा, कौन-सा हीरा?
अरे, नरेश ने कहा, हद्द कर दी! पंद्रह दिन पहले एक हीरा दे गया था। इतना बहुमूल्य हीरा--भूल ही गए?
कमाल ने कहा, हीरा! एक कंकड़ तुम लाए थे, और पूछते थे, कहां रख दूं; वही तो नहीं! तो तुम जहां रख गए थे, अगर कोई ले न गया हो, तो वहीं होगा। और कोई ले गया हो, तो मुझे पता नहीं!
नरेश ने कहा, है पक्का चालबाज! निकाल भी लिया है इसने--और कह रहा है: कोई ले गया हो, तो मैं क्या कर सकता हूं।
फिर भी उठ कर देखा। चकित हो गया। आंख से आंसू झरने लगे। हीरा वहीं का वहीं रखा था। वही सनौलियों में दबा था। पैरों पर गिर पड़ा।
कमाल ने कहा, क्या पैरों पर गिरते हो! तुम कब समझोगे? तुम अभी भी उसको हीरा मान रहे हो! इस पैरों पर गिरने में भी तुम हीरा ही मान रहे हो। अगर वह वहां न मिलता, कोई ले गया होता--कोई ले ही जाता! कोई मैं यहां चौबीस घंटे उसका पहरा देता हूं? नदी नहाने जाता हूं। गंगा स्नान करता हूं। भजन-कीर्तन करने चला जाता हूं। बाहर भी बैठता हूं। कोई ले ही गया होता। कितने लोग आते-जाते हैं। तो जरूर तुम यही खयाल लेकर जाते कि मैंने निकाल लिया है। अब तुम भैया, उसे ले जाओ। तुम खुद सम्हालो।
और तुम मेरे पैर पर गिरे, उससे पता चलता है कि हीरे का मूल्य है। चूंकि बच गया, इसलिए तुम मेरे पैर पर गिर रहे हो। अगर हीरा न बचता--तो? तो तुम मेरी गरदन काट लेते! ऐसी झंझट यहां न छोड़ो। तुम अपना हीरा ले जाओ।
मगर यह कमाल ज्यादा पते की बात कह रहा है--कमाल की बात कह रहा है!
कबीर ने भी आखिर में इसको स्वीकार किया है। और कबीर ने कहा है: बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल।
कबीरपंथी तो इसको निंदा मानते हैं, कि यह कमाल की निंदा है, कि बूढ़ा वंश कबीर का--कि कबीर का वंश नष्ट कर दिया इस दुष्ट ने! यह दुष्ट क्या पैदा हो गया कमाल, इसने मेरी सब परंपरा खराब कर दी!
लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। मैं तो मानता हूं: कबीर ने यह अंतिम सील-मुहर लगा दी कि बूढ़ा वंश कबीर का उपजा पूत कमाल!
कबीर यह कह रहे हैं कि मुझसे तो कम से कम एक बेटा भी पैदा हुआ था। इतना भी मैंने संसार चला दिया था। मगर यह कमाल अदभुत है। न इसने विवाह किया, न वंश चलाया। उपजा पूत कमाल! यह है कमाल! और क्या गजब का आदमी कि जैसा मैंने कहा है, वैसा ही माना है, वैसा ही जीया है!
यह स्वीकृति की मुहर है। मगर इसको तो कोई समझे--तो समझे। बुद्धू इसको नहीं समझ सकते।
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