परमात्मा की झलक :
साईं बाबा के पास एक हिंदू संन्यासी बहुत दिन तक था। हिंदू संन्यासी, और साईं तो रहते थे मस्जिद में। साईं बाबा का कुछ पक्का नहीं कि वे हिंदू थे कि मुसलमान। ऐसे आदमियों का कभी कुछ पक्का नहीं। लोग पूछते तो वे हंसते थे। अब हंसने से तो कुछ पता चलता नहीं! एक ही बात पता चलती है कि पूछनेवाला नासमझ है। हिंदू संन्यासी था, लेकिन वह तो मस्जिद में कैसे रुके साईं के पास! तो वह गांव के बाहर एक मंदिर में रुकता था।
लगाव उसका था, प्रेम उसका था, रोज खाना बनाकर लाता था। साईं को खाना देता, फिर जाकर खाना खाता। साईं बाबा ने उससे कहा कि तू इतनी दूर क्यों आता है? हम तो कई बार वहीं से निकलते हैं, तब तू वहीं खिला दिया कर! उसने कहा, आप वहां से निकलते हैं? कभी देखा नहीं! तो साईं ने कहा कि जरा गौर से देखना; हम कई बार तेरे मंदिर के पास से निकलते हैं, वहीं खिला देना। कल हम आ जाएंगे, तू मत आना।
कल उस हिंदू संन्यासी ने बनाकर खाना रखा, अब देखता है, देखता है, देखता है। वे आते नहीं, आते नहीं, आते नहीं! वह घबड़ा गया, दो बज गए, तो उसने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई, वे भी भूखे होंगे और मैं भी भूखा बैठा हूं। फिर वह थाली लेकर भागा। साईं के पास पहुंचा, साईं से उसने कहा कि हम राह देखते रहे, आज आप आए नहीं। उन्होंने कहा कि आज भी आया था, रोज आता हूं लेकिन तूने तो दुत्कार दिया। उसने कहा, कहां दुत्कारा? सिर्फ एक कुत्ता आया था। तो साईं ने कहा कि वही मैं था। तब तो वह हिंदू संन्यासी बहुत रोया, बहुत दुखी हुआ। उसने कहा कि आप आए और मैं पहचान न पाया! कल जरूर पहचान जाऊंगा।
अगर कुत्ते की ही शक्ल में कल भी आते तो पहचान जाता। कल भी वे आए, लेकिन एक कोढ़ी था रास्ते पर मिला। उस संन्यासी ने कहा कि जरा दूर से! दूर से! मैं भोजन लिए हुए हूं साईं का, जरा दूर से निकलो! वह कोढ़ी हंसा भी। फिर दो बज गए, फिर भागा हुआ मस्जिद आया, उसने कहा कि आप आज आए नहीं, आज मैंने बहुत रास्ता देखा। तो साईं ने कहा कि मैं तो फिर भी आया था। लेकिन तेरे चित्त में इतनी तरंगें हैं कि रोज मैं वही तो दिखाई नहीं पड़ सकता! तू ही कैप जाता है। आज वह एक कोढ़ी आया था, तो तूने कहा, दूर हट। तो मैंने कहा, हद हो गई! मैं आता हूं तो तू भगा देता है और यहां आकर कहता है कि आप आए नहीं। तो वह संन्यासी रोने लगा, उसने कहा कि मैं आपको पहचान ही नहीं पाया। तो साईं ने उससे कहा था कि तू अभी मुझे ही नहीं पहचान पाया, इसलिए दूसरी शक्लों में मुझे कैसे पहचान पाएगा?
एक बार उसकी शक्ल हमारे खयाल में आ जाए, फिर तो सभी शक्लों में वह मिल जाता है। लेकिन एक दफा पहचान ही न हो पाए, तो वह कहीं भी हमें नहीं मिलता है। मिलता है रोज, लेकिन हम रिकग्नाइज नहीं कर पाते, हम पहचान नहीं पाते कि यही है।
एक बार हम सत्य की झलक पा लें, तो फिर असत्य है ही नहीं। एक बार हम परमात्मा को झांक लें, तो परमात्मा के अतिरिक्त फिर कुछ है ही नहीं।
ओशो - जिन खोजा तिन पाइयां
साईं बाबा के पास एक हिंदू संन्यासी बहुत दिन तक था। हिंदू संन्यासी, और साईं तो रहते थे मस्जिद में। साईं बाबा का कुछ पक्का नहीं कि वे हिंदू थे कि मुसलमान। ऐसे आदमियों का कभी कुछ पक्का नहीं। लोग पूछते तो वे हंसते थे। अब हंसने से तो कुछ पता चलता नहीं! एक ही बात पता चलती है कि पूछनेवाला नासमझ है। हिंदू संन्यासी था, लेकिन वह तो मस्जिद में कैसे रुके साईं के पास! तो वह गांव के बाहर एक मंदिर में रुकता था।
लगाव उसका था, प्रेम उसका था, रोज खाना बनाकर लाता था। साईं को खाना देता, फिर जाकर खाना खाता। साईं बाबा ने उससे कहा कि तू इतनी दूर क्यों आता है? हम तो कई बार वहीं से निकलते हैं, तब तू वहीं खिला दिया कर! उसने कहा, आप वहां से निकलते हैं? कभी देखा नहीं! तो साईं ने कहा कि जरा गौर से देखना; हम कई बार तेरे मंदिर के पास से निकलते हैं, वहीं खिला देना। कल हम आ जाएंगे, तू मत आना।
कल उस हिंदू संन्यासी ने बनाकर खाना रखा, अब देखता है, देखता है, देखता है। वे आते नहीं, आते नहीं, आते नहीं! वह घबड़ा गया, दो बज गए, तो उसने कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई, वे भी भूखे होंगे और मैं भी भूखा बैठा हूं। फिर वह थाली लेकर भागा। साईं के पास पहुंचा, साईं से उसने कहा कि हम राह देखते रहे, आज आप आए नहीं। उन्होंने कहा कि आज भी आया था, रोज आता हूं लेकिन तूने तो दुत्कार दिया। उसने कहा, कहां दुत्कारा? सिर्फ एक कुत्ता आया था। तो साईं ने कहा कि वही मैं था। तब तो वह हिंदू संन्यासी बहुत रोया, बहुत दुखी हुआ। उसने कहा कि आप आए और मैं पहचान न पाया! कल जरूर पहचान जाऊंगा।
अगर कुत्ते की ही शक्ल में कल भी आते तो पहचान जाता। कल भी वे आए, लेकिन एक कोढ़ी था रास्ते पर मिला। उस संन्यासी ने कहा कि जरा दूर से! दूर से! मैं भोजन लिए हुए हूं साईं का, जरा दूर से निकलो! वह कोढ़ी हंसा भी। फिर दो बज गए, फिर भागा हुआ मस्जिद आया, उसने कहा कि आप आज आए नहीं, आज मैंने बहुत रास्ता देखा। तो साईं ने कहा कि मैं तो फिर भी आया था। लेकिन तेरे चित्त में इतनी तरंगें हैं कि रोज मैं वही तो दिखाई नहीं पड़ सकता! तू ही कैप जाता है। आज वह एक कोढ़ी आया था, तो तूने कहा, दूर हट। तो मैंने कहा, हद हो गई! मैं आता हूं तो तू भगा देता है और यहां आकर कहता है कि आप आए नहीं। तो वह संन्यासी रोने लगा, उसने कहा कि मैं आपको पहचान ही नहीं पाया। तो साईं ने उससे कहा था कि तू अभी मुझे ही नहीं पहचान पाया, इसलिए दूसरी शक्लों में मुझे कैसे पहचान पाएगा?
एक बार उसकी शक्ल हमारे खयाल में आ जाए, फिर तो सभी शक्लों में वह मिल जाता है। लेकिन एक दफा पहचान ही न हो पाए, तो वह कहीं भी हमें नहीं मिलता है। मिलता है रोज, लेकिन हम रिकग्नाइज नहीं कर पाते, हम पहचान नहीं पाते कि यही है।
एक बार हम सत्य की झलक पा लें, तो फिर असत्य है ही नहीं। एक बार हम परमात्मा को झांक लें, तो परमात्मा के अतिरिक्त फिर कुछ है ही नहीं।
ओशो - जिन खोजा तिन पाइयां