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26 August 2018

संकल्प की कुंजी


संकल्प की कुंजी :

मैंने सुना है, एक बहुत प्राचीन कुलीन परिवार में, एक छोटा बेटा शिक्षा के लिए बाहर जाने को है। उसकी उम्र सिर्फ सात वर्ष है। उसका बाप उससे कहता है कि हमारे घर से आज तक जो भी आदमी पढ़ने गया है, वह कभी बिना पूरी शिक्षा किए हुए वापस नहीं लौटा। और हमारे घर का यह रिवाज और यह संस्कार रहा है कि छोटे से बच्चे को भी जब हम घर से विदा करते हैं शिक्षा के लिए गुरुकुल जाने को, तो बच्चा पीछे लौट-लौट कर नहीं देखता। क्योंकि पीछे लौट-लौट कर देखने के हम बहुत दुश्मन हैं। हम जब घर से किसी को विदा करते हैं बच्चे को शिक्षा के लिएजब मेरे बाप ने मुझे विदा किया था, तो उसने कहा था: आंख में आंसू न आएं! क्योंकि आंख में अगर आंसू आए तो फिर यह घर तेरा नहीं है, फिर लौटना नहीं हो सकेगा। हम रोते आदमियों को घर में प्रवेश नहीं देते। यही मैं तुझसे कहता हूं कि कल सुबह चार बजे तुझे भेजा जाएगा गुरुकुल। एक नौकर तुझे घोड़े पर बिठा कर छोड़ने जाएगा। एक मील दूर पर मोड़ आता है, वहां तक तुझे घर दिखाई पड़ेगा, लेकिन लौट कर पीछे मत देखना। हम छत पर खड़े हुए देखेंगे कि तूने पीछे लौट कर तो नहीं देखा। क्योंकि पीछे लौट कर देखने वाले व्यक्ति का कोई भरोसा नहीं। पीछे लौट कर देखना ही मत!
सात वर्ष का छोटा बच्चा! वह बहुत घबड़ाया। उसकी मां ने उसे रात कहा कि घबड़ाओ मत, यही सदा होता रहा है। और एक बार हमने ऐसा सुना है कि किसी ने पीछे लौट कर देख लिया था, फिर यह घर उसका नहीं रहा। पीछे लौट कर मत देखना!
वह सात वर्ष का बच्चा रात भर सो नहीं सका कि मां-बाप को पीछे लौट कर नहीं देखेगा! अपने घर को लौट कर नहीं देखेगा! आंख में आंसू नहीं लाने हैं, पीछे लौट कर नहीं देखना है। सात वर्ष के बच्चे से ऐसी आशा? हम कहेंगे: बड़े कठोर थे वे लोग, बड़े दुष्ट थे। हम होते तो लाड़-प्यार करते, चाकलेट खिलाते। रोते खुद भी, उसको भी रुलाते और बड़ा प्रेम जाहिर करते।
प्रेम नहीं है यह, यह उस बच्चे के व्यक्तित्व से संकल्प को नष्ट करना है।
आज तो सारी दुनिया में यही खयाल है। सारी दुनिया में यही खयाल है कि बच्चे के आगे-पीछे नाचो-कूदो। बच्चे से ज्यादा बचकाना तुम अपनी हालत दिखाओ। ऐसे बच्चे के भीतर कभी भी वह ठोस कोई चीज खड़ी नहीं हो पाती, जो खड़ी होनी चाहिए। रीढ़ नहीं बन पाती उसकी आत्मा में।
वह बच्चा चार बजे बिदा हुआ। चार बजे उसकी मां और उसके पिता भी उसको द्वार पर छोड़ने नहीं आए हैं। बड़े कठोर लोग रहे होंगे, बड़े दुष्ट। उस बच्चे को घोड़े पर बिठाल दिया गया है। चार बजे की अंधेरी रात, सन्नाटा, सुबह की ठंडी हवाएं। नौकर जो उसके साथ है, वह कहता है: बेटे, पीछे लौट कर मत देखना! पीछे लौटने की मनाही है देखने की। अब तुम छोटे नहीं हो; हम तुमसे बड़ी आशाएं करते हैं। और जो पीछे लौट कर देखता है, उससे क्या आशा की जा सकती है! तुम्हारे पिता ऊपर खड़े होकर देख रहे हैं। वे कितने आनंदित होंगे कि उनके बेटे ने मोड़ तक भी पीछे लौट कर नहीं देखा।
उस लड़के की सोचते हैं हालत क्या होती होगी! कितना मन पीछे लौट-लौट कर नहीं देखने को होता होगा! सात वर्ष का छोटा सा नन्हा बच्चा! लेकिन वह बिना मुड़े, बिना देखे, मोड़ से गुजर जाता है।
उस बच्चे ने बाद में लिखा कि कितनी अदभुत आनंद की अवस्था मुझे मालूम हुईजब एक मील गुजर गया और मैंने पीछे लौट कर नहीं देखा!
वह स्कूल पहुंचा है, सुबह-सुबह अपने गुरुकुल पहुंचा है। उस गुरुकुल का जो भिक्षु है, जो उसे दीक्षा देगा, वह उसको दरवाजे पर मिलता है और कहता है कि प्रवेश के नियम हैं, हर कोई प्रविष्ट नहीं हो जाता। दरवाजे पर आंख बंद करके बैठ जाओ और जब तक मैं दुबारा न आऊं और खुद न पूछूं, तब तक आंख भी मत खोलना और उठना भी मत। और अगर तुमने बीच में आंख खोल दी, और तुम भीतर आ गए, या तुमने आस-पास देख लिया, तो तुम्हें वापस घोड़े पर लौटा दिया जाएगा, तुम्हारा नौकर बाहर प्रतीक्षा कर रहा है। और ध्यान रहे, तुम जिस घर से आते हो, उस घर का कोई बच्चा कभी वापस लौट कर नहीं गया है! और यह प्रवेश-परीक्षा है।
सात वर्ष के छोटे से बच्चे को द्वार पर बिठा दिया है। कोई पूछता नहीं उससे कि तुम्हारी मां दुखी होती होगी, आओ बेटे तुम्हारा इंतजाम करें। उसको कोई पूछता नहीं। उसका सामान रखा है, उसका घोड़ा बाहर बंधा है, उसका नौकर प्रतीक्षा कर रहा है। उस बच्चे को दरवाजे पर आंख बंद करके बिठाल दिया गया है, सात साल के बच्चे को। वे शिक्षक भी बड़े कठोर और क्रूर रहे होंगे। लेकिन जो जानते हैंकि उन मां-बाप और उन शिक्षकों से दयावान और कोई भी नहीं था।
वह बच्चा बैठा है। स्कूल में बच्चे आ रहे हैं, कोई उसको धक्का मारता है, कोई कंकड़ मारता है। बच्चे बच्चे हैं। कोई छेड़खानी करता है। लेकिन उसे आंख बंद रखनी है, चाहे कुछ भी हो जाए। क्योंकि आंख अगर बंद नहीं रही तो वापस लौटना पड़ेगा। किस मुंह से पिता के सामने खड़ा हो जाएगा कि मैं वापस आ गया! उस घर में कभी कोई वापस नहीं लौटा है।
वह छोटा सा बच्चा। सुबह की धूप बढ़ने लगी है, मक्खियां उसके चारों तरफ घूम रही हैं, बच्चे पत्थर मार रहे हैं, जो निकलता है वही धक्का मारता चला जाता है। वह आंख बंद किए है। भूख जोर की लग रही है, प्यास लग रही है। लेकिन न आंख खोलनी है, न उठना है। दोपहर हो गई, सूरज ऊपर आ गया, सिर पर छा गया। पता नहीं क्या हो रहा है? कोई आता नहीं, कोई बोलता नहीं। वह आंख बंद किए बैठा है, बैठा है। उसने आंख नहीं खोली; झपक कर भी आंख नहीं देखी।
सूरज ढलने के करीब आ गया, सांझ आ गई, वह भूख से तड़पा जा रहा है। वह गुरु और दस-पंद्रह और भिक्षु आते हैं, उसे उठा लेते हैं और कहते हैं, तू प्रवेश-परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया। तेरे पास संकल्प है। अब आगे कुछ हो सकता है। तू भीतर आ।
वह युवक हो गया बाद में तब उसने लिखा कि आज मैं याद करता हूं उनकी जो इतने कठोर मालूम पड़े थे; आज जानता हूं उनकी करुणा अदभुत थी।
हमारी करुणा बहुत अदभुत है। और हमारी करुणा सब लोच-पोच कर देती है, सब इंपोटेंट कर देती है। और हम दूसरे के प्रति भी ऐसे ढीले हैं और अपने प्रति भी ऐसे ही ढीले हैं। ऐसे संकल्प पैदा नहीं हो जाता। संकल्प पैदा होने का अर्थ है: कुछ करना पड़ेगा, कुछ दांव लेने पड़ेंगे, कुछ निर्णय करना पड़ेगा, कहीं रुकना पड़ेगा, कहीं ठहरना पड़ेगा; उस दबाव में ही वह संकल्प जागता है।
ओशो : तृषा गई एक बूंद से-(प्रवचन-03)