अकबर ने तानसेन से कहा था कि तेरा वीणा-वादन देख कर कभी-कभी यह मेरे मन में खयाल उठता है कि कभी संसार में किसी आदमी ने तुझसे भी बेहतर बजाया होगा या कभी कोई बजाएगा? मैं तो कल्पना भी नहीं कर पाता कि इससे श्रेष्ठतर कुछ हो सकता है।
तानसेन ने कहा, क्षमा करें, शायद आपको पता नहीं कि मेरे गुरु अभी जिंदा हैं। और एक बार अगर आप उनकी वीणा सुन लें, तो कहां वे और कहां मैं!
बड़ी जिज्ञासा जगी अकबर को। अकबर ने कहा, तो फिर उन्हें बुलाओ!
तानसेन ने कहा, इसीलिए मैंने कभी उनकी बात नहीं छेड़ी। आप मेरी सदा प्रशंसा करते थे, मैं चुपचाप पी लेता था, जैसे जहर का घूंट कोई पीता है, क्योंकि मेरे गुरु अभी जिंदा हैं, उनके सामने मेरी क्या प्रशंसा! यह यूं है जैसे कोई सूरज को दीपक दिखाए। मगर मैं चुपचाप रह जाता था, कुछ कहता न था, आज न रोक सका अपने को, बात निकल गई। लेकिन नहीं कहता था इसीलिए कि आप तत्क्षण कहेंगे, उन्हें बुलाओ। और तब मैं मुश्किल में पडूंगा, क्योंकि वे यूं आते नहीं। उनकी मौज हो तो जंगल में बजाते हैं, जहां कोई सुनने वाला नहीं। जहां कभी-कभी जंगली जानवर जरूर इकट्ठे हो जाते हैं सुनने को। वृक्ष सुन लेते हैं, पहाड़ सुन लेते हैं। लेकिन फरमाइश से तो वे कभी बजाते नहीं। वे यहां दरबार में न आएंगे। आ भी जाएं किसी तरह और हम कहें उनसे कि बजाओ तो वे बजाएंगे नहीं।
तो अकबर ने कहा, फिर क्या करना पड़े? कैसे सुनना पड़े?
तो तानसेन ने कहा, एक ही उपाय है कि यह मैं जानता हूं कि रात तीन बजे वे उठते हैं, यमुना के तट पर आगरा में रहते हैं--हरिदास उनका नाम था--हम रात चल कर छुप जाएं। दो बजे रात चलना होगा; क्योंकि कभी तीन बजे बजाएं, चार बजे बजाएं, पांच बजे बजाएं; मगर एक बार जरूर सुबह-सुबह स्नान के बाद वे वीणा बजाते हैं। तो हमें चोरी से ही सुनना होगा; बाहर झोपड़े के छिपे रह कर सुनना होगा।
शायद ही दुनिया के इतिहास में किसी सम्राट ने--अकबर जैसे बड़े सम्राट ने--चोरी से किसी की वीणा सुनी हो! लेकिन अकबर गया। दोनों छिप रहे एक झाड़ की ओट में, पास ही झोपड़े के पीछे। कोई तीन बजे स्नान करके हरिदास यमुना से आए और उन्होंने अपनी वीणा उठाई और बजाई। कोई घंटा कब बीत गया--यूं जैसे पल बीत जाए! वीणा तो बंद हो गई, लेकिन जो राग भीतर अकबर के जम गया था वह जमा ही रहा।
आधा घंटे बाद तानसेन ने उन्हें हिलाया और कहा कि अब सुबह होने के करीब है, हम चलें! अब कब तक बैठे रहेंगे! अब तो वीणा बंद भी हो चुकी।
अकबर ने कहा, बाहर की तो वीणा बंद हो गई मगर भीतर की बजी ही चली जाती है। तुम्हें मैंने बहुत बार सुना, तुम जब बंद करते हो तभी बंद हो जाती है। यह पहला मौका है कि जैसे मेरे भीतर के तार भी छिड़ गए हैं। और आज सच में ही मैं तुमसे कहता हूं कि तुम ठीक ही कहते थे कि कहां तुम और कहां तुम्हारे गुरु! अकबर की आंखों से आंसू झरे जा रहे हैं। उसने कहा, मैंने बहुत संगीत सुना, इतना भेद क्यों है? और तेरे संगीत में भी और तेरे गुरु के संगीत में इतना भेद क्यों है? जमीन-आसमान का फर्क है।
तानसेन ने कहा, कुछ बात कठिन नहीं है। मैं बजाता हूं कुछ पाने के लिए; और वे बजाते हैं क्योंकि उन्होंने कुछ पा लिया है। उनका बजाना किसी उपलब्धि की, किसी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। मेरा बजाना तकनीकी है। मैं बजाना जानता हूं, मैं बजाने का पूरा गणित जानता हूं--मगर गणित, बजाने का अध्यात्म मेरे पास नहीं! और मैं जब बजाता होता हूं तब भी इस आशा में कि आज क्या आप देंगे? हीरे का हार भेंट करेंगे? कि मोतियों की माला? कि मेरी झोली सोने से भर देंगे कि अशर्फियों से? जब बजाता हूं तब भी नजर भविष्य पर अटकी रहती है, फल पर लगी रहती है। वे बजा रहे हैं, न कोई फल है, न कोई भविष्य, वर्तमान का क्षण ही सब कुछ है। उनके जीवन में साधन और साध्य में कोई फर्क नहीं है, साधन ही साध्य है; और मेरे जीवन में अभी साधन और साध्य में बहुत फर्क है। बजाना साधन है। पेशेवर हूं मैं। उनका बजाना आनंद है, साधन नहीं। वे मस्ती में हैं। वे पीए हैं।
और जो परमात्मा को पीए है, उसके बजाने में जरूर वही शराब कुछ तो बह ही आएगी! उन तक भी बह आएगी जिन्होंने तौबा कर रखी है कि कभी न पीएंगे; उनके कंठों में भी उतर जाएगी। किसी सच्चे पीने वाले के पास अगर बैठ गए, किसी पियक्कड़ के पास अगर बैठ गए, तो तुम्हारे तौबा के जीने से ही उतर-उतर कर तुम्हारे हृदय तक शराब पहुंच जाएगी। तुम्हारी कसमों को तोड़ देगी। तुम्हारे नियम-व्रत-उपवास तोड़ देगी। आनंद तुम्हें बहा ले जाएगा। बह जाओगे तभी पता चलेगा कि अरे, कितनी दूर निकल आए? बहुत दूर निकल आए!
ओशो - लगन महुरत झूठ सब-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-05