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24 November 2018

संदेह

श्रद्धा की अनिवार्य सीढ़ी: संदेह

मैं मनाली जा रहा था एक शिविर लेने। बड़ी गाड़ी, मनाली का रास्ता संकरा, इंपाला गाड़ी, ड्राइवर बीच में डरने लगा। और एक जगह वर्षा हो गई थी, कीचड़ मची हुई थी, रास्ता संकरा था और गाड़ी बड़ी थी। हालांकि ड्राइवर सरदार था, मगर उसकी भी हिम्मत टूटने लगी। उसने तो एक जगह जाकर गाड़ी खड़ी ही कर दी बीच में पहाड़ पर कि अब मैं आगे नहीं जा सकता। यहां तो जीवन को खतरा है।

मैंने कहा: तेरे ही जीवन को खतरा है? मैं भी बैठा हूं। तू फिकर न कर, बढ़!
मगर वह कहे कि मैं एक कदम आगे नहीं बढ़ सकता। या तो आप उतर जाएं यहां या मैं आपको वापस दिल्ली छोड़ सकता हूं।

पीछे से मेरे एक मित्र, जो कि पुलिस के आई.जी. थे पंजाब के, वे भी शिविर में भाग लेने आ रहे थे, वे अपनी जीप में आए। उनको मैंने कहा कि कुछ करिए, यह आदमी तो अटक कर ही खड़ा हुआ है। वे आए और उन्होंने कहा कि अरे, सरदार होकर, शर्म नहीं आती? बस उनका इतना कहना कि सरदार होकर, शर्म नहीं आती, उसने पगड़ी-वगड़ी ठीक की और वह तो चल पड़ा! मैंने उससे पूछा: क्यों भाई? उसने कहा: मैं तो भूल ही गया था!

उन्होंने याद दिला दी। अरे खालसा का आदमी होकर...। तो उसने बस वाह गुरुजी का खालसा, वाह गुरुजी की फतह--और चल पड़ा! उसने कहा, अब जो होगा होगा। सरदार होकर पीछे कैसे लौट सकता है!

जरा सी बात, मगर जान खतरे में डाल दी उसने। वैसे बिलकुल नट गया था। सब कोशिश करके हार चुके थे। वह जाने को, कदम बढ़ाने को राजी ही नहीं था। इतने तक मैं राजी हो गया था कि तू पीछे बैठ, मैं ड्राइव करता हूं। उसने कहा कि मारा मैं और भी जाऊंगा। फिर तो मौत पक्की है। मैं अनुभवी हूं इस रास्ते का, पहाड़ी पर चलाने का, आप कैसे चलाएंगे? जब मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही आगे जाने की, तो मैं गाड़ी के व्हील पर आपको हाथ नहीं रखने दूंगा।

मैंने उससे कहा: तू उतर जा, हम गाड़ी ले जाते हैं।
उसने कहा: लौट कर मालिक को क्या कहूंगा?
सब उपाय करके हार गए थे। मगर एक याददाश्त--कि तू खालसा का सदस्य है और यूं कमजोरी दिखा रहा है! बस जोश वापस आ गया, बल आ गया वापस।
सिक्खों ने एक क्रांति कर दी भारत में, एक नई कौम खड़ी कर दी। और मजा यह है कि कोई सिक्ख संन्यासी हो जाता है तो सिक्ख ही उसको समझाते हैं कि गैरिक वस्त्र पहनने से क्या होगा? यह तर्क स्वाभाविक है। इसमें कुछ आश्चर्यजनक नहीं। लेकिन गैरिक वस्त्र पहनने से कुछ होता है, यह अनुभव की बात है।
ओशो : रहिमन धागा प्रेम का