मैंने एक कहानी सुनी है कि एक आदमी निरंतर रोता था जा कर मस्जिद में कि हे प्रभु, मुझे इतना दुःखी क्यों बनाया? आखिर मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है? यह अन्याय हो रहा है। और मैं तो सुनता थाः तू बड़ा न्यायी है, रहीम है, रहमान है, कृपालु है, महाकरुणावान है! मगर सब धोखे की बातें हैं। मुझे इतना दुःख क्यों दिया? सब मजे में हैं। मगर सब धोखे की बातें हैं। मुझे इतना दुःख क्यों दिया? सब मजे में हैं। सब आनंद कर रहे हैं। मैं ही दुःख में पड़ा सड़ा जा रहा हूं। कुछ कृपा कर! अगर सुख न दे सके तो कम से कम इतना तो कर कि किसी और का दुःख मुझे दे दे, यह मेरा दुःख किसी और को दे दो। इतना तो कर!
उसने एक रात सपना देखा कि कोई आवाज आकाश से कह रही है कि सब लोग अपने-अपने दुःख लेकर मस्जिद पहुंच जाएं। वह तो बड़ी जल्दी तैयार हो गया। उसने जल्दी से अपना दुःख बांधा, पोटली उठाई, भागा मस्जिद की तरफ। खुद भी भागा, उसने देखा, बड़ा हैरान हुआ कि पूरे गांव के लोग अपनी-अपनी पोटलियां लिए जा रहे हैं। वह तो सोचता था जिनके जीवन में कोई भी दुःख नहीं है...राजा भी भागा जा रहा है! वजीर भी भागे जा रहे हैं। नेता भी भागे जा रहे हैं, पंडित-पुरोहित भी भागे जा रहे हैं! उसने मौलवी को भी देखा, वह भी अपना गट्ठर लिए चला जा रहा है। सबके गट्ठर हैं। और एक और बात हैरानी की मालूम हुईः किसी के पास छोटी-मोटी पोटली नहीं। क्योंकि वह सोचने लगा कि किससे बदलना जब बदलने का मौका आ जाए। मगर सब बड़ी-बड़ी पोटलियां लिए हुए हैं। ये तो पोटलियां कभी दिखाई भी नहीं पड़ी थीं उसको। अभिनय चलता है। मस्जिद में पहुंच गए। बड़ा उत्तेजित ! सारे लोग उत्तेजित हैं, क्योंकि कुछ होने वाला है। और फिर एक आवाज हुई कि सब लोग मस्जिद की खूंटियों पर अपनी-अपनी पोटलियां टांग दें। सबने जल्दी से टांग दीं। सभी छुटकारा पाना चाहते हैं। और फिर एक आवाज हुई कि अब जिसको जिसकी पोटली चुननी हो चुन लें, बदल लें। और वह आदमी भागा और सारे लोग भागे। मगर चकित होने की बात तो यह थी कि उस आदमी ने भागकर अपनी पोटली फिर से उठा ली, कि कोई दूसरा न उठा ले। और यही हालत सबकी थी--सबने अपनी-अपनी उठा ली।
वह बड़ा हैरान हुआ, लेकिन अब बात उसके खयाल में आ गई। उसने अपनी क्यों उठाई? सोचा कि अपने दुःख कम से कम परिचित तो हैं; दूसरे का बड़ा पोटला है और पता नहीं, इसके भीतर क्या हो! अपने दुःख कम से कम जाने-माने तो हैं, उनके साथ जीते तो रहे हैं जिंदगी भर, धीरे-धीरे अभ्यस्त भी हो गए हैं। और अब धीरे-धीरे उतना उनसे दुःख भी नहीं होता।
कांटा गड़ता ही रहा हो, गड़ता ही रहा हो, गड़ता रहा हो तो धीरे-धीरे चमड़ी भी मजबूत हो जाती है; उस जगह कांटा गड़ते-गड़ते, फिर चमड़ी में उत्ता दर्द भी नहीं होता। सिरदर्द जिंदगीभर होता ही रहा तो धीरे-धीरे आदमी भूल ही जाता है; सिरदर्द और सिर में कोई फर्क ही नहीं रह जाता। एक अभ्यास हो जाता है।
और तब उसे समझ में आया कि सबने अपने-अपने उठा लिए; सब डर गए हैं कि कहीं दूसरे का न उठाना पड़े; पता नहीं दूसरे की अपरिचित पोटली, भीतर कौन-से सांप-बिच्छू समाए हों! प्रत्येक ने अपनी-अपनी पोटलियां उठा लीं और सब बड़े खुश हैं कि अपनी पोटली वापिस मिल गई। और सब अपने घर की तरफ भागे जा रहे हैं। सुबह जब उसकी नींद खुली, तब उसे सच्चाई समझ में आई : ऐसा ही है। यहां सब दुःखी हैं। मगर एक अभिनय चल रहा है।
इस अभिनय से जो जाग गया उसके जीवन में ही संन्यास का जन्म होता है। अभिनय से जाग जाना संन्यास है।
ओशो : अजहू चेत गवांर