तुमने सुनी है न
उस आदमी की कहानी, जिसकी किसी कारण नाक कट गयी थी। किसी की पत्नी के प्रेम में पड़ गया और पति
गुस्से में आ गया और उसने जाकर उसकी नाक कांट दी। अब बड़ी मुसीबत खड़ी हुई।
मगर वह आदमी
होशियार था; तार्किक था। उसने गांव में खबर फैला दी कि नाक कटने से बड़ा आनंद हो रहा
है। प्रभु के दर्शन हो गए नाक ही बाधा थी। उसने कहा, यह नाक
ही बाधा थी, जिस दिन से नाक कटी उस दिन से प्रभु के दर्शन हो
क्षण है द्वार प्रभु का रहे हैं। सब जगह परमात्मा दिखायी पड़ता है।
पहले तो लोगों
को शक हुआ कि नाक कटने से कभी किसी ने सुना नहीं! लेकिन जब वह रोज—रोज कहने लगा रोज—रोज कहने लगा, और जो भी जाता उसी को कहने लगा,
और वह बड़ा मस्त भी दिखायी पड़ने लगा, तो आखिर
एक पगला गांव का राजी हुआ, उसने कहा कि फिर मेरी भी कांट
दें।
उसने उसकी नाक
कांट दी, नाक कटते ही से दर्द तो बहुत हुआ, खून भी बहा,
और कोई ईश्वर वगैरह दिखायी नहीं पड़ा। तो पहले नककटे ने दूसरे से कहा—सुन; कोई ईश्वर वगैरह दिखायी पड़ता भी नहीं, मगर अब तेरी भी कट गयी, अब सार इसी में है कि तू भी
यही कह। नहीं तो लोग समझेंगे तू बुद्ध है। अब तो तू जोर से खबर कर कि दिखता है! सो
गुरु को शिष्य भी मिल गया।
फिर तो गांव में
और दो —चार
पगले मिले—पगलों की कोई कमी है! धीरे— धीरे
गांव में लोगों की नाके कटने लगीं और जिन—जिनकी कटने लगीं,
वे परम आनंद की बातें करने लगे। बात यहां तक पहुंची कि सम्राट तक
पहुंच गयी। सम्राट भी उत्सुक हो गया कि इतने लोगों को परमात्मा के दर्शन हो रहे
हैं और हम सम्राट होकर खाली हैं। आखिर उसने अपने वजीरों से कहा कि चलना पड़ेगा। अरे,
नाक ही जाती है, जाने दो, नाक का करना क्या है! वजीर ने कहा कि प्रभु, जरा
मुझे खोजबीन कर लेने दो, मुझे इसमें शक मालूम पड़ता है। पर
उसने कहा, शक एक आदमी पर कर सकते हो, पचासों
आदमियों की कट गयी और जिसकी कटती है, बाहर निकलते ही से
नाचता हुआ निकलता है!
सम्राट अपने
वजीर को लेकर पहुंचा। फिर भी वजीर ने कहा, आप जरा रुके। उसने एक नाक कटे आदमी को
पकड़वाकर उसको अच्छी मार दिलवायी और उससे कहा, तू सच—सच बता दे कि बात क्या है? जब उसको मार काफी पड़ी,
तो उसने कहा, अब सच बात यह है कि हमारी तो कट
ही गयी, अब जुड्ने से रहो—उन दिनों कोइ
प्लास्टिक सर्जरी होती भी नहीं थी—अब सार इसी में है कि जो
गुरु कहता है, वही हम भी कहें।
अक्सर ऐसा होता
है, अक्सर ऐसा होता रहा है
कि जब एक आदमी जीवन से कुछ भाग जाता है—पली छोड़ दी। अब न नाक
कटने से कोई परमात्मा के दर्शन होते, न पत्नी को छोड़ने से
कोई परमात्मा के दर्शन होते हैं! दोनों बातें एक सी मूढ़तापूर्ण हैं, न तो नाक बाधा बनी है, न पत्नी बाधा बनी है। और शायद
नाक तो बाधा बन भी जाए, क्योंकि बिलकुल आंख के पास है,
पत्नी तो बहुत दूर है।
कोई धन को
छोड्कर भाग गया है, वह सोचता है, धन बाधा थी, इसके
कारण प्रभु—मिलन नहीं हो रहा था। धन के कारण! धन ठीकरे हैं।
चादी—सोना तुम्हारे लिए मूल्यवान है, परमात्मा
के लिए तो मूल्यवान नहीं। यह तो आदमी की भाषा है। पशु—पक्षियों
तक को इसकी फिकर नहीं है! तुम रख दो कोहनूर हीरा भैंस के सामने, वह बिलकुल फिकर न करेगी। तुम गधे के गले में लटका दो, वह अकड़कर न चलेगा। उसके लिए आदमी जैसा मूरख कोई चाहिए।
तो परमात्मा को
तो कुछ पता ही नहीं है कि तुम्हारा धन क्या है, बाधा कैसे पड़ेगी! लेकिन जिसने छोड़ दिया,
उसको एक बेचैनी पकड़ती है—उसने तो छोड़ दिया,
उसकी तो नाक कट गयी, अब तो इसी में सार है कि
औरों की भी कट जाए। इसलिए बड़ी मूढ़तापूर्ण बातें भी सदियों तक चलती रहती हैं। उनकी
परंपरा बन जाती है।
तो बुद्ध कहते
हैं, अतिशय से बचना। अति वर्जित है। फिर अति चाहे भोग और त्याग की हो, चाहे जीवन और मृत्यु की हो, चाहे संसार और मोक्ष की
हो, अति तो अति ही है।
ओशो : एस धम्मो सनंतनो