Republic Day - 2019

30 October 2019

દેવચકલી

સંગીતકાર પંખીડાં દેવચકલી :

તમારા આંગણામાં રમતી દેવચકલી તરફ ધ્યાન ગયું છે કોઈ દિવસ? દેવચકલી કદમાં ચકલીથી નાનું પંખી છે, પણ ભારતભરમાં જોવા મળે છે. ઉત્તર ગુજરાત અને દક્ષિણ ગુજરાતમાં પણ બારે માસ જોવા મળે છે. દક્ષિણ ગુજરાતની દેવચકલી ઉત્તર ગુજરાતની દેવચકલી કરતાં વધુ કાળી અને સુંદર ગણાય છે. દેવચકલીનાં ગુજરાતી નામો કાળી દેવ, કાળી દેહ, દેવલી વગેરે છે.  અંગ્રેજી નામ ઈન્ડિયન રોબિન અથવા નવું નામ ઈન્ડિયન બ્લેક રોબીન છે.

દેવચકલા (નર)નો રંગ માથું, છાતી, ગળું, ગરદન અને પાંખો ઘેરો કાળો હોય છે. ખભા ઉપર બંને બાજુ સફેદ પદમ (ચકદાં) હોય છે. પૂંછનાં મૂળ નીચે લાલાશ પડતો કથ્થાઈ રંગ હોય છે. ચાંચ, પગ અને આંખો કાળા હોય છે. માદા રાખોડી પડતી કથ્થાઈ હોય છે. પાંખોમાં સફેદ લાખાં નથી હોતા. બંનેની પૂંછડી અને ખાસ કરીને નરની ઊંચી રહે છે. ઘરની પરસાળમાં આવી જાય છે. દાણા વગેરે ખાતા નથી. હંમેશાં ઈયળ, જીવડાં વગેરે આરોગે છે. બીજા પક્ષીઓની જેમ જમાતમાં નથી રહેતાં, પરંતુ જોડીમાં હોય છે. નર હંમેશાં માદાને મદદ કરવા ઉત્સુક રહેતો હોય છે. ખાસ કરીને ડોક જમીન ઉપર, વાડ કે નાનાં છોડવાઓમાં બારે માસ નજરે પડે છે. જમીન ઉપર કૂદતાં ચાલે છે. છેલ્લા કેટલાક દાયકાઓથી તેમની વસતીમાં ઘટાડો થયો છે. દેવચકલીની ગણતરી સંગીતકાર પક્ષીઓમાં થાય છે. જોકે કેટલાક લેખકો તેમનાં સંગીતને ખાસ મહત્ત્વ આપતા નથી. નર સૂરીલો અવાજ કાઢે છે. ખાસ કરીને સંવનન સમયમાં તે સમયે માદાને રીઝવવા ગોળ ગોળ ફરે છે. પૂંછ ઊંચી કરીને નૃત્ય પણ કરે છે. કેટલાક લેખકો તેને વહુઘેલો ગણે છે.

તેના માળા કુદરતી બખોલ, સડેલા વૃક્ષની ડાળી, ભીંતમાંનાં પોલમાં અને કોઈ વખત ભોંય ઉપર પણ બનાવે છે. માળા બનાવવા માટે બારીક ઘાસ, ઊન, વાળ, રેસા વગેરે વાપરીને વાટકી જેવો માળો બનાવે છે. અસ્તર તરીકે પીંછા, સાપની કાંચળી વગેરેનો પણ ઉપયોગ કરે છે. સંવનન કાળ એપ્રિલથી જૂન હોય છે. બેથી ત્રણ ઈંડાં મૂકે છે. ઈંડાં મલાઈ જેવા સફેદ અને ઉપર લીલા અને કથ્થાઈ રંગનાં ડાઘા-ડૂઘી હોય છે. માદા સેવન કરે છે. નર તેનાં માટે ખોરાક વગેરે લાવે છે. ખડેપગે ચોકી કરીને માળા, ઈંડાં, બચ્ચાં અને માદાનું રક્ષણ કરે છે.
માહિતી સાભાર : ડૉ. અશોક એસ. કોઠારી

29 October 2019

કાશ્મીરી નીલકંઠ

કાશ્મીરી નીલકંઠ / કાશ્મીરી ચાષ :

છાતી પેટાળ, માથું અને ઓડ આછા વાદળી રંગનાં હોય છે. તેમાં આછા લીલા રંગની ઝાંય હોય છે. પેડુ જાંબલી રંગનું હોય છે. કપાળ અને દાઢી સફેદ હોય છે. પીઠ ઉપર આછો છીકણી રંગ હોય છે. કબૂતર જેટલા કદનું આ યાયાવર પક્ષી તુર્કસ્તાન, ઇરાન, પેશાવરની આજુબાજુ અને કાશ્મીરમાં પ્રજનન કરે છે. શિયાળામાં આફ્રિકા તરફ પ્રયાણ કરતું સિંધ, પંજાબ, રાજસ્થાન, ઉત્તર ગુજરાત ઉપરથી ઊડીને જાય છે.

25 October 2019

કાઠિયાવાડી લટોરો (મટિયો લટોરો)


કાઠિયાવાડી લટોરો (મટિયો લટોરો)

આ પક્ષીનું સામાન્ય નામ  (long-tailed shrike or rufous-backed shrike ) છે. શાસ્ત્રીય નામ(Laniidae) છે. કદ દૂધિયા લટોરાથી થોડુંક નાનું છે. માથું અને પીઠ રાખોડી રંગનાં છે. ઉપરનાં ભાગમાં વચ્ચેથી કેડ સુધી મુલ્તાની માટી જેવો રંગ છે, તેથી મટિયો લટોરો નામ પડ્યું છે. નીચેનો ભાગ સફેદ અને પડખાં લાલાશ પડતાં પીળાં હોય છે. મજબૂત ચાંચને છેડે આંકડો હોય છે. 10,000’ની ઊંચાઈએ હિમાલયથી માંડીને ભારતભરમાં પશ્ર્ચિમ ભારત અને સૌરાષ્ટ્રમાં સામાન્ય પક્ષી છે. શ્રીલંકા, પાકિસ્તાન, મ્યાનમારમાં વસે છે. તીણો પડઘા પાડતો અવાજ ‘ક્વી રીક કે ચ્યુસ’ હોય છે. નર માદા દેખાવે સરખાં હોય છે. પક્ષીઓ સિવાય ગલુડિયાનાં અવાજ દેડકાંનાં અવાજ વગેરેની આબાદ નકલ કરી જાણે છે. પ્રજનનકાળ માર્ચથી ઑક્ટોબર હોય છે. ડાંખળાઓનાં પ્યાલા જેવાં માળામાં દૂધિયા લટોરા જેવા પણ નાનાં 3 થી 6 ઇંડાં મૂકે છે.
માહિતી સાભાર : અશોક એસ. કોઠારી

20 October 2019

जीवन का सबसे बड़ा सत्य


जीवन का सबसे बड़ा सत्य :

महाभारत में बड़ी प्राचीन, बड़ी मीठी कथा है कि जब पांडव जंगल में अज्ञातवास पर हैं, भटकते रहे हैं दिन में--दोपहरी--पानी नहीं मिला। सांझ एक भाई खोजने निकला, झील मिल गई। लेकिन जब वह झील में पानी भरने को झुका, तो आवाज आई--रुको! जब तक मेरे प्रश्न का उत्तर न दो, तब तक पानी न भर सकोगे। कोई यक्ष उस झील पर कब्जा किए था। पूछा, क्या है तुम्हारा प्रश्न? यक्ष ने कहा, अगर उत्तर न दिया या उत्तर गलत हुआ, तो तत्क्षण मृत हो जाओगे। अगर उत्तर दिया, तो जल भी मिलेगा और अनंत भेंट भी दूंगा।
प्रश्न था कि मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा सत्य क्या है? जो उत्तर दिया--जो भी दिया हो--वह ठीक नहीं था। एक भाई गिरा, मृत हो गया। ऐसे चार भाई एक के बाद एक गए। अंत में युधिष्ठिर गए कि हो क्या रहा है! चारों भाइयों को मरे हुए पाया। यक्ष की आवाज आई--सावधान! पहले मेरे प्रश्न का उत्तर, अन्यथा वही होगा जो इनका हुआ है। पानी एक ही शर्त पर भर सकते हो, वह मेरा ठीक उत्तर मिल जाए। क्योंकि उसी उत्तर पर मेरी मुक्ति निर्भर है। जिस दिन मुझे ठीक उत्तर मिल जाएगा, उस दिन मैं भी मुक्त हो जाऊंगा; यह मेरा बंधन यक्ष होने का टूट जाएगा।
प्रश्न है: मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा सत्य क्या है?
युधिष्ठिर ने कहा, यही कि चाहे कितने ही अनुभव मिलें, मनुष्य सीख नहीं पाता। यक्ष मुक्त हो गया। चारों भाई पुनरुज्जीवित हो गए। उसकी प्रसन्नता में, मुक्ति की प्रसन्नता में उसने चारों को पुनरुज्जीवन दिया।
मनुष्य को कितने ही अनुभव हो जाएं, सीख नहीं पाता। एक स्त्री से छूटता है, दूसरी! दूसरी से छूटता है, तीसरी! एक उपद्रव मिटता है, दूसरा! एक सफलता का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है, तो दूसरा! एक दौड़ बंद नहीं हो पाती कि दूसरी शुरू कर देता है, दौड़ से नहीं मुक्त होता। एक वासना गिर नहीं पाती कि दस खड़ी कर लेता है। वासना की भ्रांति नहीं दिख पाती। और हर चीज के पीछे अपने तर्क खोज लेता है, अपने कारण खोज लेता है। और कभी यह नहीं देखता कि भूल मेरी होगी। सदा भूल किसी और पर थोप देता है। निश्चिंत होकर फिर भूल करने में लग जाता है।
ओशो : भज गोविंद मुढ़मते

18 October 2019

नियति


नियति बड़ी है ।

टालस्टाय ने एक छोटी सी कहानी लिखी है। मृत्यु के देवता ने अपने एक दूत को भेजा पृथ्वी पर। एक स्त्री मर गयी थी, उसकी आत्मा को लाना था। देवदूत आया, लेकिन चिंता में पड़ गया। क्योंकि तीन छोटी-छोटी लड़कियां जुड़वां--एक अभी भी उस मृत स्त्री के स्तन से लगी है। एक चीख रही है, पुकार रही है। एक रोते-रोते सो गयी है, उसके आंसू उसकी आंखों के पास सूख गए हैं--तीन छोटी जुड़वां बच्चियां और स्त्री मर गयी है, और कोई देखने वाला नहीं है। पति पहले मर चुका है। परिवार में और कोई भी नहीं है। इन तीन छोटी बच्चियों का क्या होगा?
उस देवदूत को यह खयाल आ गया, तो वह खाली हाथ वापस लौट गया। उसने जा कर अपने प्रधान को कहा कि मैं न ला सका, मुझे क्षमा करें, लेकिन आपको स्थिति का पता ही नहीं है। तीन जुड़वां बच्चियां हैं--छोटी-छोटी, दूध पीती। एक अभी भी मृत स्तन से लगी है, एक रोते-रोते सो गयी है, दूसरी अभी चीख-पुकार रही है। हृदय मेरा ला न सका। क्या यह नहीं हो सकता कि इस स्त्री को कुछ दिन और जीवन के दे दिए जाएं? कम से कम लड़कियां थोड़ी बड़ी हो जाएं। और कोई देखने वाला नहीं है।
मृत्यु के देवता ने कहा, तो तू फिर समझदार हो गया; उससे ज्यादा, जिसकी मर्जी से मौत होती है, जिसकी मर्जी से जीवन होता है! तो तूने पहला पाप कर दिया, और इसकी तुझे सजा मिलेगी। और सजा यह है कि तुझे पृथ्वी पर चले जाना पड़ेगा। और जब तक तू तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर, तब तक वापस न आ सकेगा।
इसे थोड़ा समझना। तीन बार न हंस लेगा अपनी मूर्खता पर--क्योंकि दूसरे की मूर्खता पर तो अहंकार हंसता है। जब तुम अपनी मूर्खता पर हंसते हो तब अहंकार टूटता है।
देवदूत को लगा नहीं। वह राजी हो गया दंड भोगने को, लेकिन फिर भी उसे लगा कि सही तो मैं ही हूं। और हंसने का मौका कैसे आएगा?
उसे जमीन पर फेंक दिया गया। एक चमार, सर्दियों के दिन करीब आ रहे थे और बच्चों के लिए कोट और कंबल खरीदने शहर गया था, कुछ रुपए इकट्ठे कर के। जब वह शहर जा रहा था तो उसने राह के किनारे एक नंगे आदमी को पड़े हुए, ठिठुरते हुए देखा। यह नंगा आदमी वही देवदूत है जो पृथ्वी पर फेंक दिया गया था। उस चमार को दया आ गयी। और बजाय अपने बच्चों के लिए कपड़े खरीदने के, उसने इस आदमी के लिए कंबल और कपड़े खरीद लिए। इस आदमी को कुछ खाने-पीने को भी न था, घर भी न था, छप्पर भी न था जहां रुक सके। तो चमार ने कहा कि अब तुम मेरे साथ ही आ जाओ। लेकिन अगर मेरी पत्नी नाराज हो--जो कि वह निश्चित होगी, क्योंकि बच्चों के लिए कपड़े खरीदने लाया था, वह पैसे तो खर्च हो गए--वह अगर नाराज हो, चिल्लाए, तो तुम परेशान मत होना। थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा।
उस देवदूत को ले कर चमार घर लौटा। न तो चमार को पता है कि देवदूत घर में आ रहा है, न पत्नी को पता है। जैसे ही देवदूत को ले कर चमार घर में पहुंचा, पत्नी एकदम पागल हो गयी। बहुत नाराज हुई, बहुत चीखी-चिल्लायी।
और देवदूत पहली दफा हंसा। चमार ने उससे कहा, हंसते हो, बात क्या है? उसने कहा, मैं जब तीन बार हंस लूंगा तब बता दूंगा।
देवदूत हंसा पहली बार, क्योंकि उसने देखा कि इस पत्नी को पता ही नहीं है कि चमार देवदूत को घर में ले आया है, जिसके आते ही घर में हजारों खुशियां आ जाएंगी। लेकिन आदमी देख ही कितनी दूर तक सकता है! पत्नी तो इतना ही देख पा रही है कि एक कंबल और बच्चों के पकड़े नहीं बचे। जो खो गया है वह देख पा रही है, जो मिला है उसका उसे अंदाज ही नहीं है--मुफ्त! घर में देवदूत आ गया है। जिसके आते ही हजारों खुशियों के द्वार खुल जाएंगे। तो देवदूत हंसा। उसे लगा, अपनी मूर्खता--क्योंकि यह पत्नी भी नहीं देख पा रही है कि क्या घट रहा है!
जल्दी ही, क्योंकि वह देवदूत था, सात दिन में ही उसने चमार का सब काम सीख लिया। और उसके जूते इतने प्रसिद्ध हो गए कि चमार महीनों के भीतर धनी होने लगा। आधा साल होते-होते तो उसकी ख्याति सारे लोक में पहुंच गयी कि उस जैसा जूते बनाने वाला कोई भी नहीं, क्योंकि वह जूते देवदूत बनाता था। सम्राटों के जूते वहां बनने लगे। धन अपरंपार बरसने लगा।
एक दिन सम्राट का आदमी आया। और उसने कहा कि यह चमड़ा बहुत कीमती है, आसानी से मिलता नहीं, कोई भूल-चूक नहीं करना। जूते ठीक इस तरह के बनने हैं। और ध्यान रखना जूते बनाने हैं, स्लीपर नहीं। क्योंकि रूस में जब कोई आदमी मर जाता है तब उसको स्लीपर पहना कर मरघट तक ले जाते हैं। चमार ने भी देवदूत को कहा कि स्लीपर मत बना देना। जूते बनाने हैं, स्पष्ट आज्ञा है, और चमड़ा इतना ही है। अगर गड़बड़ हो गयी तो हम मुसीबत में फंसेंगे।
लेकिन फिर भी देवदूत ने स्लीपर ही बनाए। जब चमार ने देखे कि स्लीपर बने हैं तो वह क्रोध से आगबबूला हो गया। वह लकड़ी उठा कर उसको मारने को तैयार हो गया कि तू हमारी फांसी लगवा देगा! और तुझे बार-बार कहा था कि स्लीपर बनाने ही नहीं हैं, फिर स्लीपर किसलिए?
देवदूत फिर खिलखिला कर हंसा। तभी आदमी सम्राट के घर से भागा हुआ आया। उसने कहा, जूते मत बनाना, स्लीपर बनाना। क्योंकि सम्राट की मृत्यु हो गयी है।
भविष्य अज्ञात है। सिवाय उसके और किसी को ज्ञात नहीं। और आदमी तो अतीत के आधार पर निर्णय लेता है। सम्राट जिंदा था तो जूते चाहिए थे, मर गया तो स्लीपर चाहिए। तब वह चमार उसके पैर पकड़ कर माफी मांगने लगा कि मुझे माफ कर दे, मैंने तुझे मारा। पर उसने कहा, कोई हर्ज नहीं। मैं अपना दंड भोग रहा हूं।
लेकिन वह हंसा आज दुबारा। चमार ने फिर पूछा कि हंसी का कारण? उसने कहा कि जब मैं तीन बार हंस लूं...।
दुबारा हंसा इसलिए कि भविष्य हमें ज्ञात नहीं है। इसलिए हम आकांक्षाएं करते हैं जो कि व्यर्थ हैं। हम अभीप्साएं करते हैं जो कि कभी पूरी न होंगी। हम मांगते हैं जो कभी नहीं घटेगा। क्योंकि कुछ और ही घटना तय है। हमसे बिना पूछे हमारी नियति घूम रही है। और हम व्यर्थ ही बीच में शोरगुल मचाते हैं। चाहिए स्लीपर और हम जूते बनवाते हैं। मरने का वक्त करीब आ रहा है और जिंदगी का हम आयोजन करते हैं।
तो देवदूत को लगा कि वे बच्चियां! मुझे क्या पता, भविष्य उनका क्या होने वाला है? मैं नाहक बीच में आया।
और तीसरी घटना घटी कि एक दिन तीन लड़कियां आयीं जवान। उन तीनों की शादी हो रही थी। और उन तीनों ने जूतों के आर्डर दिए कि उनके लिए जूते बनाए जाएं। एक बूढ़ी महिला उनके साथ आयी थी जो बड़ी धनी थी। देवदूत पहचान गया, ये वे ही तीन लड़कियां हैं, जिनको वह मृत मां के पास छोड़ गया था और जिनकी वजह से वह दंड भोग रहा है। वे सब स्वस्थ हैं, सुंदर हैं। उसने पूछा कि क्या हुआ? यह बूढ़ी औरत कौन है? उस बूढ़ी औरत ने कहा कि ये मेरी पड़ोसिन की लड़कियां हैं। गरीब औरत थी, उसके शरीर में दूध भी न था। उसके पास पैसे-लत्ते भी नहीं थे। और तीन बच्चे जुड़वां। वह इन्हीं को दूध पिलाते-पिलाते मर गयी। लेकिन मुझे दया आ गयी, मेरे कोई बच्चे नहीं हैं, और मैंने इन तीनों बच्चियों को पाल लिया।
अगर मां जिंदा रहती तो ये तीनों बच्चियां गरीबी, भूख और दीनता और दरिद्रता में बड़ी होतीं। मां मर गयी, इसलिए ये बच्चियां तीनों बहुत बड़े धन-वैभव में, संपदा में पलीं। और अब उस बूढ़ी की सारी संपदा की ये ही तीन मालिक हैं। और इनका सम्राट के परिवार में विवाह हो रहा है।
देवदूत तीसरी बार हंसा। और चमार को उसने कहा कि ये तीन कारण हैं। भूल मेरी थी। नियति बड़ी है। और हम उतना ही देख पाते हैं, जितना देख पाते हैं। जो नहीं देख पाते, बहुत विस्तार है उसका। और हम जो देख पाते हैं उससे हम कोई अंदाज नहीं लगा सकते, जो होने वाला है, जो होगा। मैं अपनी मूर्खता पर तीन बार हंस लिया हूं। अब मेरा दंड पूरा हो गया और अब मैं जाता हूं।
नानक जो कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि तुम अगर अपने को बीच में लाना बंद कर दो, तो तुम्हें मार्गों का मार्ग मिल गया। फिर असंख्य मार्गों की चिंता न करनी पड़ेगी। छोड़ दो उस पर। वह जो करवा रहा है, जो उसने अब तक करवाया है, उसके लिए धन्यवाद। जो अभी करवा रहा है, उसके लिए धन्यवाद। जो वह कल करवाएगा, उसके लिए धन्यवाद। तुम बिना लिखा चेक धन्यवाद का उसे दे दो। वह जो भी हो, तुम्हारे धन्यवाद में कोई फर्क न पड़ेगा। अच्छा लगे, बुरा लगे, लोग भला कहें, बुरा कहें, लोगों को दिखायी पड़े दुर्भाग्य या सौभाग्य, यह सब चिंता तुम मत करना।
ओशो : एक ओंकार सतनाम

16 October 2019

जब तक है जान

जब तक है जान :
 
स्वामी राम जापान गए। जिस जहाज पर वह थे, एक नब्बे वर्ष का जर्मन बूढ़ा चीनी भाषा सीख रहा था। अब चीनी भाषा सीखनी बहुत कठिन बात है। शायद मनुष्य की जितनी भाषाएं हैं, उनमें सबसे ज्यादा कठिन बात है। क्योंकि चीनी भाषा के कोई वर्णाक्षर नहीं होते, कोई क ख ग नहीं होता। वह तो चित्रों की भाषा है। इतने चित्रों को सीखना नब्बे वर्ष की उम्र में! अंदाजन किसी भी आदमी को दस वर्ष लग जाते हैं ठीक से चीनी भाषा सीखने में।
तो नब्बे वर्ष का बूढ़ा सीख रहा है सुबह से सांझ तक, यह कब सीख पाएगा? सीखने के पहले इसके मर जाने की संभावना है। और अगर हम यह भी मान लें, बहुत आशावादी हों कि यह जी जाएगा दस-पंद्रह साल, तो भी उस भाषा का उपयोग कब करेगा? जिस चीज को दस साल सीखने में लग जाएं, अगर दस-पच्चीस वर्ष उसके उपयोग के लिए न मिलें, तो वह सीखना व्यर्थ है। लेकिन वह बूढ़ा सुबह से सांझ तक डेक पर बैठा हुआ है और सीख रहा है!
रामतीर्थ के बरदाश्त के बाहर हो गया। उन्होंने जाकर तीसरे दिन उससे कहा कि क्षमा करें, मैं आपको बाधा देना चाहता हूं। एक बात मुझे पूछनी है। आप यह क्या कर रहे हैं? यह चीनी भाषा आप कब सीख पाएंगे? आपकी उम्र तो नब्बे वर्ष हुई! और उस बूढ? आदमी ने रामतीर्थ की तरफ देखा और उसने कहा कि जब तक मैं जिंदा हूं, तब तक जिंदा हूं। और जब तक मैं जिंदा हूं, तब तक मर नहीं गया हूं। मरने का चिंतन करके मैं मरने के पहले नहीं मरना चाहता हूं। और अगर मरने का हम चिंतन करें कि कल मैं मर जाऊंगा, तो यह तो मुझे जन्म के पहले दिन से ही विचार करना पड़ता कि कल मैं मर सकता हूं, कभी भी मर सकता हूं। तो फिर मैं जी भी नहीं पाता। लेकिन नब्बे साल मैं जीया हूं। और जब तक मैं जी रहा हूं, तब तक सीखूंगा, ज्यादा से ज्यादा जानूंगा, ज्यादा से ज्यादा जीऊंगा। क्योंकि जब तक जी रहा हूं, तब तक एक-एक क्षण का पूरा उपभोग करना जरूरी है ताकि मेरा पूरा आत्म-विकास हो।
और उसने रामतीर्थ से पूछा कि आपकी उम्र क्या है? रामतीर्थ की उम्र तो केवल बत्तीस वर्ष थी। वे बहुत झेंपे होंगे मन में, और कहा कि सिर्फ बत्तीस वर्ष। तो उस बूढ़े आदमी ने जो कहा था, वह पूरे भारत को सुन लेना चाहिए। और उस बूढ़े आदमी ने कहा था कि तुम्हें देख कर मैं समझता हूं कि तुम्हारी पूरी कौम बूढ़ी क्यों हो गई है। तुम्हारी पूरी कौम से यौवन, शक्ति, ऊर्जा क्यों चली गई है। तुम क्यों मुर्दे की तरह जी रहे हो पृथ्वी पर। क्योंकि तुम मृत्यु के संबंध में अत्यधिक विचार करते हो और जीवन के संबंध में जरा भी नहीं।
ओशो : एक एक कदम

जीत की आशा

जीत की आशा:
 
कोई दो सौ वर्ष पहले, जापान में दो राज्यों में युद्ध छिड़ गया था। छोटा जो राज्य था, भयभीत था; हार जाना उसका निश्चित था। उसके पास सैनिकों की संख्या कम थी। थोड़ी कम नहीं थी, बहुत कम थी। दुश्मन के पास दस सैनिक थे, तो उसके पास एक सैनिक था। उस राज्य के सेनापतियों ने युद्ध पर जाने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि यह तो सीधी मूढ़ता होगी; हम अपने आदमियों को व्यर्थ ही कटवाने ले जाएं। हार तो निश्चित है। और जब सेनापतियों ने इनकार कर दिया युद्ध पर जाने से...उन्होंने कहा कि यह हार निश्चित है, तो हम अपना मुंह पराजय की कालिख से पोतने जाने को तैयार नहीं; और अपने सैनिकों को भी व्यर्थ कटवाने के लिए हमारी मर्जी नहीं। मरने की बजाय हार जाना उचित है। मर कर भी हारना है, जीत की तो कोई संभावना मानी नहीं जा सकती।
सम्राट भी कुछ नहीं कह सकता था, बात सत्य थी, आंकड़े सही थे। तब उसने गांव में बसे एक फकीर से जाकर प्रार्थना की कि क्या आप मेरी फौजों के सेनापति बन कर जा सकते हैं? यह उसके सेनापतियों को समझ में ही नहीं आई बात। सेनापति जब इनकार करते हों, तो एक फकीर को--जिसे युद्ध का कोई अनुभव नहीं, जो कभी युद्ध पर गया नहीं, जिसने कभी कोई युद्ध किया नहीं, जिसने कभी युद्ध की कोई बात नहीं की--यह बिलकुल अव्यावहारिक आदमी को आगे करने का क्या प्रयोजन है?
लेकिन वह फकीर राजी हो गया। जहां बहुत-से व्यावहारिक लोग राजी नहीं होते वहां अव्यावहारिक लोग राजी हो जाते हैं। जहां समझदार पीछे हट जाते हैं, वहां जिन्हें कोई अनुभव नहीं है, वे आगे खड़े हो जाते हैं। वह फकीर राजी हो गया। सम्राट भी डरा मन में, लेकिन फिर भी ठीक था। हारना भी था तो मर कर हारना ही ठीक था। फकीर के साथ सैनिकों को जाने में बड़ी घबड़ाहट हुई: यह आदमी कुछ जानता नहीं! लेकिन फकीर इतने जोश से भरा था, सैनिकों को जाना पड़ा। सेनापति भी सैनिकों के पीछे हो लिए कि देखें, होता क्या है?
जहां दुश्मन के पड़ाव पड़े थे उससे थोड़ी ही दूर उस फकीर ने एक छोटे-से मंदिर में सारे सैनिकों को रोका, और उसने कहा कि इसके पहले कि हम चलें, कम से कम भगवान को कह दें कि हम लड़ने जाते हैं और उनसे पूछ भी लें कि तुम्हारी मर्जी क्या है। अगर हराना ही हो तो हम वापस लौट जाएं और अगर जिताना हो तो ठीक।
सैनिक बड़ी आशा से मंदिर के बाहर खड़े हो गए। उस आदमी ने हाथ जोड़ कर आंख बंद करके भगवान से प्रार्थना की, फिर खीसे से एक रुपया निकाला और भगवान से कहा कि मैं इस रुपए को फेंकता हूं, अगर यह सीधा गिरा तो हम समझ लेंगे कि जीत हमारी होनी है और हम बढ़ जाएंगे आगे, और अगर यह उलटा गिरा तो हम मान लेंगे कि हम हार गए, हम वापस लौट जाएंगे, राजा से कह देंगे, व्यर्थ मरने की व्यवस्था मत करो; हमारी हार निश्चित है, भगवान की भी मर्जी यही है।
सैनिकों ने गौर से देखा, उसने रुपया फेंका। चमकती धूप में रुपया चमका और नीचे गिरा। वह सिर के बल गिरा था; वह सीधा गिरा था। उसने सैनिकों से कहा, अब फिक्र छोड़ दो। अब खयाल ही छोड़ दो कि तुम हार सकते हो। अब इस जमीन पर कोई तुम्हें हरा नहीं सकता। रुपया सीधा गिरा था। भगवान साथ थे। वे सैनिक जाकर जूझ गए। सात दिन में उन्होंने दुश्मन को परास्त कर दिया। वे जीते हुए वापस लौटे। उस मंदिर के पास उस फकीर ने कहा, अब लौट कर हम धन्यवाद तो दे दें!
वे सारे सैनिक रुके, उन सबने हाथ जोड़ कर भगवान से प्रार्थना की और कहा, तेरा बहुत धन्यवाद कि तू अगर हमें इशारा न करता जीतने का, तो हम तो हार ही चुके थे। तेरी कृपा और तेरे इशारे से हम जीते हैं।
उस फकीर ने कहा, इसके पहले कि भगवान को धन्यवाद दो, मेरे खीसे में जो सिक्का पड़ा है, उसे गौर से देख लो। उसने सिक्का निकाल कर बताया, वह सिक्का दोनों तरफ सीधा था, उसमें कोई उलटा हिस्सा था ही नहीं। वह सिक्का बनावटी था, वह दोनों तरफ सीधा था, वह उलटा गिर ही नहीं सकता था!
उसने कहा, भगवान को धन्यवाद मत दो। तुम आशा से भर गए जीत की, इसलिए जीत गए। तुम हार भी सकते थे, क्योंकि तुम निराश थे और हारने की कामना से भरे थे। तुम जानते थे कि हारना ही है।
जीवन में सारे कामों की सफलताएं इस बात पर निर्भर करती हैं कि हम उनकी जीत की आशा से भरे हुए हैं या हार के खयाल से डरे हुए हैं। और बहुत आशा से भरे हुए लोग थोड़ी-सी सामर्थ्य से इतना कर पाते हैं, जितना कि बहुत सामर्थ्य के रहते हुए भी निराशा से भरे हुए लोग नहीं कर पाते हैं। सामर्थ्य मूल्यवान नहीं है। सामर्थ्य असली संपत्ति नहीं है। असली संपत्ति तो आशा है--और यह खयाल है कि कोई काम है जो होना चाहिए; जो होगा; और जिसे करने में हम कुछ भी नहीं छोड़ रखेंगे।
ओशो : एक एक कदम

10 October 2019

जीवन एक नृत्य

जीवन एक नृत्य:
मैं एक नये बनते हुए मंदिर के पास से निकलता था। मंदिर की दीवालें बन गई थीं। शिखर निर्मित हो रहा था। मंदिर की मूर्ति भी निर्मित हो रही थी। सैकड़ों मजदूर पत्थर तोड़ने में लगे थे। मैंने पत्थर तोड़ते एक मजदूर से पूछा: मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने बहुत गुस्से से मुझे देखा और कहा: क्या आपके पास आंखें नहीं हैं? क्या आपको दिखाई नहीं पड़ता? मैं पत्थर तोड़ रहा हूं। कोई क्रोध होगा उसके मन में, कोई निराशा होगी। और पत्थर तोड़ना कोई आनंद का काम भी नहीं हो सकता है। मैं उस मजदूर को छोड़ कर आगे बढ़ गया और दूसरे मजदूर से पूछा। वह भी पत्थर तोड़ रहा था। मित्र क्या कर रहे हो? उस मजदूर ने क्रोध से तो नहीं लेकिन अत्यंत उदासी से मेरी तरफ देखा और कहा: आजीविका कमा रहा हूं, बच्चों के लिए रोटी कमा रहा हूं। क्या आपको दिखाई नहीं पड़ता? वह भी पत्थर तोड़ रहा था। लेकिन उसने कहा, बच्चों के लिए रोटी कमा रहा हूं। निश्चित ही केवल रोटी कमाना भी कोई बहुत आनंद की बात नहीं हो सकती है। वह उदास था और दुखी था, लेकिन फिर भी पत्थर तोड़ने वाले से भिन्न थी उसकी दशा। वह क्रोधित नहीं था। मैं और आगे बढ़ा और एक तीसरे पत्थर तोड़ने वाले आदमी से मैंने पूछा: मित्र क्या कर रहे हो? वह कोई गीत गुनगुनाता था। उसने आंखें ऊपर उठाईं। उसकी आंखों में किसी आनंद की झलक थी। उसने कहा: देखते नहीं हैं आप, भगवान का मंदिर बना रहा हूं? वह भी पत्थर तोड़ रहा था। वे तीनों ही पत्थर तोड़ रहे थे..एक क्रोध से भरा था, एक उदासी से, एक आनंद से। वे तीनों एक ही काम कर रहे थे। लेकिन जो आदमी पत्थर तोड़ रहा था, वह क्रोध से भरेगा ही; क्योंकि जीवन पत्थर तोड़ने के लिए नहीं है। और जिनका जीवन पत्थर तोड़ने में ही नष्ट हो जाता है, वे यदि क्रोधित हो उठते हों, तो आश्चर्य नहीं। दूसरा व्यक्ति क्रोधित तो नहीं था, लेकिन उदास था। क्योंकि जिंदगी रोटी कमाने में ही व्यतीत हो जाए, तो उदासी के अतिरिक्त और कुछ हाथ नहीं आ सकता। और वे लोग अभागे हैं, जो रोटी कमाने में ही जीवन को नष्ट कर देते हैं। लेकिन तीसरा व्यक्ति भगवान का मंदिर बना रहा था। वह भी पत्थर तोड़ रहा था। लेकिन भगवान का मंदिर बनाना एक आनंद है। और धन्य हैं वे लोग जो जीवन में भगवान के मंदिर को बनाने में समर्थ हो पाते हैं।
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